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जाने कहां गए वो दिन……… बचपन के

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जाने कहां गए वो दिन……… बचपन के

संपादकीय

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समाज में परिवर्तन होता आया है और होता ही रहेगा। शहर में बदलाव आया संरचनात्मक भी और सामाजिक भी। यह परिवर्तन गांवों में भी बहुत तेजी के साथ हुआ। वैश्वीकरण के युग में सब कुछ बाजार आधारित हो गया। विकास ने न केवल हमारे भौतिक परिवेश को ही प्रभावित किया बल्कि सामाजिक ताने बाने को,मानसिक फलक को भी अछूता नहीं रहने दिया। कहावत है कि अजब तेरी महिमा,अजब तेरी लीला। वह भी क्या जमाना था जब दरवाजे पर बैल,भैंस, गाय,बकरी, घोड़ा,मुर्गी,कुत्ता आदि अपनी उपस्थिति से कोलाहल पूर्ण परिवेश का सृजन करते थे। सुबह सूर्य की स्वर्ण रश्मियां ओस की बूंद को सुनहली बना देती थी,चिड़ियों का चहचहाना,भौरों का गुंजन वातावरण को संगीतमय बना देते थे। कुएं पर चरखी की आवाज क्या सिहरन पैदा कर देती थी नहाने से पूर्व ही,जाड़े में रोएं खड़े हो जाते थे। दरवाजे पर इन जानवरों की अधिकता उस व्यक्ति की संपन्नता और शौक के द्योतक थे, उस गाँव में उसे बड़ मनई कहा जाता था । दरवाजे पर नीम का दरख्त और दाएँ या बाएँ पक्का कुंआ,उस पर चरखी बरहा और कूंड। एक बड़ी बोरसी में आग हमेशा रहती थी,माचिस का जमाना था नहीं,लोग बाग शाम को आग ले भी जाया करते थे। उस बोरसी के पास बीड़ी ,सुर्ती और कहीं कहीं हुक्का भी रखा रहता था,एक सरौता, सोपाडी,पक्की सुरती,कत्था, चूना। दरवाजे के बगल लंबा -चौड़ा बैठका होता था। बैठके में चौकी,चरपाई(पलंग) पड़ी रहती। जो भी थोड़ा संपन्न रहता उसके यहाँ कमोबेश ये सारी व्यवस्थाएं रहती थीं । जानवर तो निश्चित ही रहते थे । आज यह सब कुछ गायब हो चुका है । दूध अब डेरी से आता है,बच्चो के पीने के लिए और चाय बनाने के लिए।पहले दूध दूधनहर में गरमाया जाता था। दही जमाने पर लाल सी मोटी साढ़ी,गजब का स्वाद,फिर मट्ठा बने,मक्खन निकले,सभी लोग चाव से खाते थे।अब गाँव में भी गैस आ गई, गोहरी का जमाना लद गया। हर गाँव में एक छोटी सी परचून और चाय की दुकान हो गई है।सुबह-शाम चाय पीने वहाँ ही लोगबाग चले जाते हैं। लगभग प्रत्येक 5 किलोमीटर के अंदर देसी दारू का ठेका खुल गया है वहां चखना की दुकान भी मिल जाती हैं,अंडे की दुकान तो रहती ही है। उधर से ही एक पाउच/शीशी चढाकर साइकिल/मोटर साइकिल से झूमते-झामते,बेवजह बोलते हुए,गाली गलौज करते हुए गाँव (घर) की ओर चल देते हैं,कई लोग तो सामने पड़ जाते हैं तो कन्नी काट कर चल देते हैं। खुदा ना खास्ता कुछ ज्यादा चढ गयी तो रास्ते में ही सड़क पर या पटरी पर ही लुढ़क भी जाते हैं। कभी कभी कुछ ज्यादा हो जाती है या देशी और अंग्रेजी का मेल हो जाता है,या मिलावटी मिल जाती है जैसा कि अभी अंबेडकरनगर,आजमगढ़,अलीगढ़ में हुआ।सैकड़ों लोग स्वर्ग सिधार गए,बीबी बच्चे अनाथ हो गए, सुहाग मिट गए, मां की कोख सूनी हो गई, पिता के अरमान दारू की भेंट चढ़ गए। ऐसे हादसे लगभग हर वर्ष हो जाया करते हैं,लेकिन सरकार क्या करे,इससे उसे बहुत टैक्स मिलता है जो,लोग मरे तो वह क्या करे,2 से 4 लोगों का निलंबन करके उनके कार्यों की इतिश्री हो जाती है। जबकि जब दूध लेने जाते हैं या दूधिया सायकिल पर बाल्टे में दूध लेकर लोगों के घर -घर जाकर दूध देता है त उससे कुछ दिन बाद बड़े प्रेम से पूछते हैं कि भैया/दादा पानी तो नही मिलाए हैं। दूध का रुपया प्रायः महीने भर बाद दिया जाता है।जबकि दारू लोग ठेके पर नगद लेते हैं,लेकिन उससे एक बार भी नहीं पूछते हैं कि इसमें कोई मिलावट तो नहीं है,यह एक बहुत बड़ी विडंबना है ।


पहले गाँव में किसी भी कार्य प्रयोजन में घर और गाँव की गृहलक्ष्मियां और मनसेधू मिलकर पूरा खाना बनाने से लेकर भोजन परोसने तक का काम कर लेते थे। दोना पत्तल,पुरवा एवं पानी परोसने का काम छोटे-छोटे बच्चे ही कर डालते थे, हम लोगों का प्रशिक्षण भी रामजियावान भैया,बृजेन्द्र चाचा(बलुआ) के साथ ऐसे ही हुआ था। खाना खाने के बाद पत्तल-पुरवा उठाकर उसे उचित स्थान पर रख आया जाता था।किसी भी शादी विवाह, बरही, तेरही,भोज भात में दूध-दही ,बरतन आदि खरीदना नहीं पड़ता था,सब कुछ पास –पड़ोस से मिल जाया करता था। रिश्तेदारों के यहां से दौरी(साड़ी,राशन,सब्जी आदि) आती थी,उत्सव का माहौल होता था।अब सब कुछ परिवर्तित हो गया है। पहले नाच वाले बाहर से आते थे,खाना घर की महिलाएं व पुरुष मिलकर बनाते थे।अब पूरा घर परिवार के लोग नाचते हैं, बाबर्ची खाना पकाते हैं। पहले लोग सायकिल चलाकर काम भी कर आते थे । इसी बहाने उनकी मेहनत भी हो जाती थी,श्रम उत्पादक था। आज कार या मोटरसाइकिल से जिम में हजारों रूपये खर्च करके एक ही स्थान पर खड़ी आधुनिक सायकिल पर घंटों पसीना बहाते हैं। पहले क्या था कि लोटा लेकर नदी या पोखरे की ओर निपटान करने चले जाते थे । इसी बहाने टहलान भी हो जाती थी वहां ही नीम या बबूल की दातून किया,नहाया-धोया और सिर पर धोती या गमछा रखा,घर चले आए। आज कल इज्जत घर स्नानघर दोनों घर में ही है।कई लोग तो वही स्लीपर पूरे घर में पहनकर चलते हैं,क्योंकि इज्जतघर से आए हैं, नहा धोकर,भोजन की थाली पर पालथी मार बैठ गए।पहले बिना हाथ-पैर धोये आप मझेरियां (रसोई) पर नहीं जा सकते थे।जूता चप्पल पहनकर कोई घर के अंदर नहीं जा सकता था। बाहर धुलकर खड़ाऊं रखा रहता था। आधुनिकता मे बहुत सी चीजें गायब होती जा रही हैं। पहले आजा – आजी,बाबा- बूढ़ी का का घर में बहुत ही कद्र व फिक्र होती थी,अब———। समय के साथ बदलाव जरूरी है लेकिन हमें अपनी संस्कृति व संस्कार को सहेजने की भी जरूरत है। किसी ने क्या खूब कहा है कि हम चांद पर पहुंच गए लेकिन धरती पर रहना नहीं सीख पाए। कोविड ने जरूर जिंदगी का कुछ पाठ हमें पढ़ाया है, दुःख और पीड़ा के नए अनुभवों के साथ संवेदनशीलता,सहकारिता,मेल- जोल बढ़ाने और प्रकृति की ओर रुख करने की नई सीख मिली है।
जोहार धरती मां!जोहार प्रकृति!

लेखक….डा ओ पी चौधरी
समन्वयक,अवध परिषद, उत्तर प्रदेश;
संरक्षक, अवधी खबर;सम्प्रति, एसोसिएट प्रोफेसर,मनोविज्ञान विभाग,श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी।
मो 9415694678

 

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