पंचायत चुनाव लोकतंत्र का पर्व या शक्ति प्रदर्शन: आधी आबादी का सच
1 min readपंचायत चुनाव लोकतंत्र का पर्व या शक्ति प्रदर्शन: आधी आबादी का सच
अम्बेडकरनगर। उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव चल रहा है और अंतिम चरण 29 अप्रैल को समाप्त होगा। चुनाव की तैयारी शासन अपने सरकारी अमले के साथ कर रहा था तो दूसरी ओर गांवों में बहुत पहले से ही बड़ी बड़ी होर्डिंग और सादी (प्रायः दाल बाटी, चोखा,खीर) एवम् रंगीन पार्टी (जो नॉन वेज और लीकर के साथ होती है) के साथ शादी विवाह, मरनी, जियनी, भागवत,मुंडन अनेकानेक कार्यक्रमों में शामिल होने की होड़ मची है। अब प्रथम चरण का समाप्त हो चुका है। बड़ा मजेदार वाकया है मैं तीन दिन पूर्व वाराणसी में अपनी भतीजी की शादी का कार्ड बांटने गया,दो तीन गांवों में,वहां के लोगों की आपस में चर्चा सुनकर बड़ा मजा आया की अबकी नवरात्र में चुनाव हो जाने से प्रत्याशी बहुत राहत में हैं, मुर्गा, मीट, फ्राईड फिश और मदिरा का सेवन लोग नही कर रहे हैं,खर्च काफी कम हो गया है, केवल पनीर तक ही लोग रह गए। खाने खिलाने का दौर बदस्तूर जारी है। उम्मीदवार भी एक से बढ़कर एक हैं। मजे में सहायताप्राप्त अशासकीय डिग्री व माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक हैं, पगार कोषागार से लिया, काम क्षेत्र में भ्रमण कर जनता का ; पठन– पाठन के अतिरिक्त, अन्य सभी कार्य,हमारे विधान सभा क्षेत्र जलालपुरअम्बेडकरनगर के वर्तमान सदस्य, विधान सभा एक कॉलेज में अध्यापक रहते हुए अपने इतने दिनों के कार्यकाल में कितने दिनों तक अध्यापन कार्य किए होंगे वही बता सकते हैं। वहीं से बी जे पी के उम्मीदवार जो डा राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय अयोध्या में प्रोफेसर हैं, ये लोग प्रायः क्षेत्र में रहते हैं, कब पढ़ते – पढ़ाते हैं, अल्लाह जानें।। यह तो प्रभावशाली लोग हैं। अपने जनपद में हम ऐसे दर्जनों लोगों को जानते हैं जो अध्यापन पेशे में है,लेकिन पेशेवर राजनीतिज्ञ हैं, चुनाव लड़ना और लड़ाना इनका मुख्य कार्य है। यही हाल पूरे प्रदेश का है। सबसे मजेदार बात यह है की समाज में इनका सम्मान भी है, क्योंकि ये अपना मूल कार्य(अध्यापन) नहीं करते हैं, जो मूल कार्य करते हैं वे केवल मुद्दरिश ही रह जाते हैं।तनख्वाह तो ऐशो आराम के लिए है। ऐसे अध्यापक प्रधानी, जिला पंचायत सदस्य/अध्यक्ष, ब्लॉक प्रमुख, बी डी सी तक के लिए भी मैदान में उतरने के लिए आतुर। इससे अच्छा होगा भी क्या, तनख्वाह सरकार देगी,वोट जनता देगी,फिर चुनाव जीतकर या अपनी पत्नी, मां किसी अन्य को जिताकर लोकतंत्र का खुला माखौल उड़ायेगे। शिक्षक स्वयं में एक अत्यंत सम्मानित पेशा है, जिसमें नौकरी से ज्यादा सेवा भाव और सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने का दायित्व है, बच्चों को एक सजग और जागरूक नागरिक बनाने की जिम्मेवारी है। लेकिन कुछ लोग प्रधान बनकर या अपनी पत्नी को प्रधान बनवाकर, प्रधानपति कहलाने में ज्यादा गौरवबोध का अनुभव करते हैं। अब बात प्रधानपति की आ गई तो इस बात का जिक्र भी जरूरी है।मेरे निकटस्थ गांव की प्रधान महिला थी, लेकिन लोग उनके पति को ही प्रधान कहकर बुलाते थे और उन्हीं के पास जाते थे और तो और वही मीटिंग में भी जाते थे,यही हाल जिला पंचायत सदस्यों का भी है। ऐसे में कैसा लोकतंत्र, किसका लोकतंत्र, कैसा महिला सशक्तिकरण, कैसा महिला आरक्षण,सभी कोई मायने नहीं रखता,ऐसे में आधी आबादी में निर्णय लेने की क्षमता कैसे विकसित हो। वैशाखी के सहारे गांव, संस्थाएं व लोकतंत्र, जनतंत्र। ग्राम प्रधान या कोई नेता सदैव अपने व्यक्तिगत लाभ हानि की ही सोचता है। मनरेगा में जॉब कार्ड का भी चक्कर है।जनपद मीरजापुर में दो वर्ष पहले खबर आई थी की एक दुधमुंहा बच्चा भी मनरेगा में काम करता है। गांव में पंचायत बैठकों की परम्परा समाप्त हो चुकी सभी निर्णय प्रधान,सेक्रेटरी और लेखपाल मिल कर लेते हैं। किस कार्य के लिए बजट मिला हैं , गांव में कौन सा काम आवश्यक है, किस कार्य में ज्यादा लोगों का फायदा इस बात की गांव पंचायत में चर्चा किये जाने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं करता, सच बोलने-सुनने की इच्छा व साहस किसी में नहीं रह गया है, गांव के विकास या अन्य किसी मामले में विमर्श या सार्वजनिक चर्चा की आवश्यकता कोई महसूस नहीं करता है। इस चुनावी मौसम में बच्चे क्रिकेट खेलने के लिए इक्कठा होते हैं, व्यस्क या तो दारू मुर्ग़ा, बाटी चोखा की पार्टी या फिर तास खेलने के लिए जुटते हैं। सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए ग्राम सभा की कदाचित ही कोई मीटिंग होती हो। क्या विवाद या भलाई बुराई के डर से पंचायत राज की अवधारणा समाप्त हो रहीं हैं? क्या गांव का लोकतंत्र केवल एक दिन वोट डालने तक सीमित है ? मुझे गांव से लेकर ऊपर तक सभी स्तरों पर लोकतंत्र खतरे में नज़र आता है,अर्थात उसका यही स्वरूप नजर आता है । इस विषय पर विचार और सार्थक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है कि गांव का सामाजिक ताना-बाना सही बना रहे गांव के विकास तथा साफ सफाई में और समारोहों में सबकी सहभागिता हो तभी लोकतन्त्र को बचाया जा सकेगा अन्यथा सत्ता और ताकत प्रायः लोगों को भ्रष्ट और तानाशाह बनाती ही है, बनाती ही रहेगी। कुछ माह पूर्व वोटर लिस्ट में नाम बढ़वाने और कटवाने के फेर में अंबेडकरनगर के जहांगीरगंज ब्लॉक में दो सगे भाइयों को मौत के घाट उतार दिया गया था,ऐसे न जाने कितने लोग हिंसा का शिकार होते हैं। प्रधानी के चुनाव में हिंसा अब आम बात हो गई है।ऐसे में लोक का क्या होगा,लोकतंत्र का क्या होगा,समाज का क्या होगा? हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए,ताकि हमारा लोकतंत्र सभी स्तर पर मजबूत हो सके।जोहार प्रकृति!जोहार किसान!
लेखक…….डा ओ पी चौधरी
एसोसिएट प्रोफेसर, मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी।
मो : 9415694678