गांव गिरांव:यादों के झरोखे से – वो प्यारा बचपन और अपना गांव और वो मस्ती : डॉ ओ पी चौधरी
1 min readगांव गिरांव:यादों के झरोखे से – वो प्यारा बचपन और अपना गांव और वो मस्ती : डॉ ओ पी चौधरी
भारतमाता ग्रामवासिनी! खेतों में फैला है श्यामल धूल भरा मैला सा आंचल
तोड़ता हूं मोह का बंधन,क्षमा दो
गांव मेरे,द्वार,घर,आंगन क्षमा दो
ये सुमन लो,ये चमन लो! नीड़ का तृण तृण समर्पित
सुमित्रा नंदन पंत और रामावतार त्यागी जी ने क्या खूब चित्रण किया है।प्रकृति की पूजा,प्रकृति की अर्चना हमारी संस्कृति में है,हमारे संस्कार में है।भारतवर्ष को गॉवों का देश कहा जाता है।प्रत्येक गांव का अपना एक अलग व्यक्तित्व होता है,अलग पहचान होती है।मिट्टी के घर, खपरैल,गोशाला में बंधे बैल, गाय,भैंस,सामने लहलहाते खेत, रहट और कोल्हू का पिहकती आवाज – यही है हमारा गांव जहां हमने पलकें खोली।उषा की लालिमा हाथों में सोने का थाल लिए रोज नए विहान की आरती उतारती है।बूढ़े बरगद ,आम नीम और लता कुंजो पर चहचहाते हुए भिन्न भिन्न पक्षी प्रभात बेला का स्वागत करते हैं। पौ फटते ही किसान कंधे पर हल लिए अपने मित्र समान बैलों के साथ खेत की तरफ निकल पड़ता है,धरती पुत्र ही धरती को चीरकर,अपने अथक परिश्रम से अन्न पैदा कर अन्नदाता के रूप में प्रतिष्ठित होता है।देश की इतनी विशाल जनसंख्या को भोजन देने का कार्य गांवों का ही है,अन्नदाता का ही है।किसी ने ठीक ही लिखा है की बीता समय लौटकर नहीं आता,पर वह कहीं जाता भी नहीं है।भूले- बिसरे सब हमारे भीतर ही हैं।हम हर समय अतीत में नहीं जा सकते। पर,उसे पूरी तरह बिसराया भी नहीं जा सकता है।बचपन की घटनाएं और बातें जो तब सहज भाव में घटी थी,आज वे स्मृतियों के रूप में गहन अचेतन में दफन हैं।बचपन,किशोरावस्था, युवा,प्रौढ़ावस्था को पार कर जीवन के सांध्य बेला में हूं।आज जब लोग धनतेरस और दीपावली के आगमन की शुभकामनायें देने में व्यस्त हैं।मेरा मन गॉव की पगडंडियों,खोरों, पैड़ो और खेतों की मेड़ों पर विचरण कर रहा है-जीवन के अर्थ,मर्म और सार्थकता की तलाश में।अपने पुरनियों की यादों में,उनकी बातों में,जो अब पीछे छूट चुके हैं।मिट्टी के दीयों में कच्ची रुई की बाती और शुद्ध सरसों के तेल से लबालब भरे दीपक की लड़ियां,मानों आकाश के तारे धरती पर उतर आए हों।खेत की मेड़ों पर,घूर पर,गोशाला में जगह जगह दीपक रखने की होड़ मची रहती थी।जब भी घर (गॉव)जाता हूँ उसी बचपन में पहुंचकर,बचपन के बाल सुलभ भाव- जिज्ञासा,सपनों और अरमानों को जिंदा पाकर उस अतीत में लौटने का, उसमे झांकने का,उसे जीने का एक झूठा ताना बाना बुनता हूं।
इन्हीं गांवों में धरती के लाल बसते हैं,जो खेतों की मिट्टी और रहट,ट्यूबबेल के पानी से सनकर बहुत ही परिश्रम से काम करते हुए हरियाली का आह्वान करते हैं।जहां किसान का पसीना गिरता है वहां चमकीले गेहूं के दाने उगते हैं,जो हमारी क्षुधा को शांत करते हैं।इसमें भी हम मस्ती से रहते थे।अभी भी शहर में रहते हुए अपना गांव स्वप्न बनकर हमारे हृदय में समय रहता है।उसके स्मरण मात्र से ही तन मन पुलकित और उत्तेजना पूर्ण हो जाता है।उस समय की कल्पना ही अब हमारे बच्चे कर सकते हैं,हम जैसों से संस्मरण मात्र सुन सकते हैं।शाम को चूल्हा जलने पर चारों ओर धुंआ का उठना उस गांव की संपन्नता का द्योतक था।अब स्थिति ठीक इसके विपरीत है,धुंआ उठना पिछड़ेपन की निशानी है।प्रधानमंत्री जी की उज्ज्वला योजना की असफलता है।लेकिन अब दुधनहर वाला ललका गाढ़ा दूध,ललकी साढ़ी वाली दही,गढ़की साढ़ी सहित मट्ठा,बटुली वाली गढ़की दाल, हथरोटिया,भूजी आलू और गंजी,सब कुछ नदारद।विकास ने परंपराओं का विनाश कर डाला।तब कसेहरी का छप्पर संपन्नता का द्योतक था, उसमें 2 -4 खाट या तखत पड़े रहना,घर की शान समझी जाती थी।अब टाइल्स का जमाना है।जमीन के ऊपर पॉव ही नहीं पड़ना है, वैसे हम जमीन से इतने ऊपर उठते गए कि अपना जमीर तक खो बैठे।अब पड़ोसी का दुःख हमें अपना दुःख नहीं लगता,बल्कि उसका सुख हमारे दुख का कारण है,ईर्ष्या का कारण है।खैर यह तो गंभीर बातें होने लगी।मैं वापस ले चलता हूँ अपने गॉव मैनुद्दीनपुर,जलालपुर,अम्बेडकरनगर(किंतु यह कमोवेश सभी गांवों की बात है)जहाँ बिन्ना बाबा,संतू काका और हितई काका रहते थे,जिनकी आज याद आ गई और मैं अपने बचपन की यादों में खोता गया।कितने सच्चे और अच्छे थे वे लोग।भागीरथी और हक्कल काका, रामचरन,वचन दादा,प्रह्लाद, जिया,छोटकुन बाबा, हेमराज दादा, रामदेव बाबा,हीरा माई, झुलुरा माई,नैकीना माई, कुसुमी काकी, पियारी भौजी किसका नाम गिनाऊँ किसका छोडूं।लक्खो बूढ़ी,नाटो बूढ़ी,पतरको बूढ़ी,दिल्लाजी फुआ,झिनका फूआ,झूना फूआ, मुर्ता फूआ सभी से कितना अपनत्व,स्नेह और नेह।सभी का कितना लिहाज।इन लोगों में कोई छल कपट नहीं था, बेबाक बोलते थे।बस अब सब यादें ही रह गईं।महादेवी वर्मा ने बहुत ही सटीक लिखा है कि अतीत की स्मृतियां बहुत ही सुखद होती हैं जैसी भी रही हों।लेकिन यह हमारी थाती हैं।मुझे यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं है कि तब समाज में छुआ -छूत की भावना व्याप्त थी लेकिन अपनत्व था एक दूसरे के सुख – दुख के साथी थे।अब साथ में खान-पान हो गया लेकिन दिलों में दूरी हो गयी।सामाजिक ताना-बाना छिन्न -भिन्न हो गया।सभी एक व्यक्ति और एक इंसान मात्र न रहकर एक जाति,धर्म,सम्प्रदाय,मजहब के हो गए।जब भी गांव में किसी के घर बच्चा पैदा होता था,तो उस समय ,नर्स,मिडवाइफ सभी की भूमिका में हीरा माई, बुधना माई,कुसुमी काकी आदि ही हुआ करती थीं,स्त्री रोग विशेषज्ञ मौसी(लाले बाबा, स्व. लालता प्रसाद सिंह,समसपुर की मौसी थी,उन्हें पूरा जवार ही मौसी कहता था) ही थी,बिना किसी भेदभाव के सभी के यहां हाजिर रहती थी,उन्हें इस कार्य मे महारथ हासिल थी,सभी को गरियाती रहती थी,लेकिन उसे आशीर्वाद स्वरूप सभी स्वीकार करते थे।सोहर गाने गॉव और बगल के गॉव की महिलाएं तक आती थी।जब भी बच्चे पैदा हुए-उनका पालन-पोषण माता-पिता के साथ-साथ परिवार के अन्य सदस्य भी मिल जुलकर करते थे,प्रायः संयुक्त परिवार हुआ करते थे।रिश्तेदारी से कोई न कोई सौरी संभालने आ जाया करती थी।दादी,बुआ,बड़ी मॉ,चाची कोई न कोई उन्हें गॉव में घुमा लाता था।बच्चों का समाजीकरण वहीं से शुरू हो जाता था,दूसरे बच्चों के साथ।जब भी इनके अल्हड़पन को देखता हूँ और जब ये उस लड़कपन में बेफिक्र होकर मजे लेते हुए आनंदित होते हैं तो अपना भी मन आनंदित ही नहीं बल्कि आह्लादित होता है । लेकिन हम लोग बचपन में जो जीवन जीये और मजे किए अभाव में रहते हुए वह आज के बच्चे सभी सुविधाओं के होते हुए भी नहीं जी रहे हैं,एक बनावट भरे परिवेश में रह रहे हैं।चाहे शहर रहा हो या फिर गाँव,उस समय सब कुछ खुला-खुला था। गाँव से लेकर शहर तक बड़े-बड़े खेलकूद के मैदान थे।उन मैदानों में छुट्टी के दिन सुबह से लेकर शामतक गुल्ली-डंडा,अखाड़ा,कबड्डी,लंगड़ी का खेल खेलते थे । खेलने-कूदने के बाद नदी(भैंस चराने के बहाने नदी जाया करते थे)या पोखरे में जाकर खूब मस्ती के साथ इस पार से उस पार तक तैर कर या डुबकी लगा कर मौज मस्ती करते थे,मछली भी मरते थे।फिर घर का कोई एक सदस्य डंडा लेकर ढूंढता-फिरता था। जब भी हमलोग मिल जाते तो वह उस डंडे से खूब पिटाई करते थे(मैं और सेवाराम बाबू(अवकाश प्राप्त वरिष्ठ जेल अधीक्षक डा सेवाराम सिंह चौधरी) फंस ही जाया करते थे, रंगा बिल्ला की तरह दोनों नाम एक साथ लिए जाते थे,भले ही उस घटना में अकेले शामिल हों या न भी हों)।लेकिन दूसरे दिन फिर वही हरकत जैसे “कुक्कुर क मार अढाई घरी”।सब कुछ भूल कर निकल जाते थे खेलने। दूसरे के खेत से गन्ना तोड़ कर चूसते थे,मटर,चना का होरहा भूनते थे।कभी-कभी दूर बगीचे में जाकर सियरी और सुर्र खेलते थे।बूढ़े लोगों से चुहुलबाजी भी करते थे।भगवान बाबा खूब पान खाते थे, सफेद रंग की मिर्जयी पहनते थे,जिसपर पान की पीक की छाप दिखाई पड़ती थी, कल्पा बूढ़ी कम सुनती थी उन्हें चिढ़ाने में खूब मजा आता था।गाली देने में हमारे घर के सामने गॉव साईं समस पुर में सुखदेई बूढ़ी रहती थी उन्हें खूब चिढ़ाते,घर में हांड़ी में गंदा फेंककर(बरसात के लिए टोटका किया जाता था)
और गाली खाते थे।
थोड़ी दूसरी ओर चलते हैं, जब मार्च/अप्रैल में गन्ने की बुवाई होती थी तब सबसे पहले गाँव भर के लोग गन्ना छीलते और शाम को खेत के पास लाकर गड़ासे से पताड़ बालते और उसमें से जो गेड़ी निकलती उसे लेकर कई दिनों तक चूसते थे। दूसरे दिन खेत में खूब कूद-कूद कर गन्ना का जो पताड़ होता था उसे दौड़ दौड़कर नाली में बोते थे। घुघनी-रस का आनंद लेते और जिनके खेत में गन्ना बोया गया रहता था,रात में उनके यहाँ सभी लोग खाना खाते थे, उस खाने में मुंगौरा और झोर जरूर बनता था,उसमे जो आनंद मिलता था अब वह आनंद आज के बच्चों को कहाँ मिलने वाला है।अब तो सब कुछ मशीन से हो रहा है और व्यक्ति भी मशीन हो गया है संवेदना विहीन,अपनत्व ममत्व का कोई पुट शेष नहीं बचा है।ईर्ष्या,दंभ,बनावटीपन,प्रदर्शन की भावना बलवती हो गई है।
मिट्टी की दीवाल,छप्पर वाला घर ,खपरैल वाला घर या ओसारी अब अधिकांश गांवों में दिखाई ही नहीं दे रहा है। न मिट्टी वाला बखार,जबरा, डेहरी न मिट्टी वाले चूल्हे, न पीढा पर बैठकर,थाली में उचकुन लगाकर मंझेरिया में भोजन, न गढका मट्ठा, न मोटकी रोटी,न भौरी दाल, हथरोटिया ,न साढ़ी वाली दही,न दुधनहर वाला औटल दूध,न केवटी की दाल,न ही दलफरा,न चूनी वाली रोटी, न बेरहनी,आम की अमावट,फूट वाली कांकर और गुड़,बाल(मक्का) सब कुछ नदारत।अब रेडीमेड का जमाना आ गया, जंक फूड ने गांवों में भी अपनी पैठ बना लिया है, चाउमिन के बिना 56 प्रकार के व्यंजन भी बेकार हैं।
आज उम्र के इस पड़ाव पर जब भी इन लोगों की याद आती है, उस सामाजिक ताने-बाने की,उस समय के खाने की तब-तब अपने बचपन की यादें ताजा हो जाती हैं। हर दिन जितना नया है,उतना ही बीते और आने वाले कल से जुड़ा हुआ भी।बीता हुआ कल हमारी जमीन है,विरासत है,धरोहर है।बीते हुए कल की अच्छी बुरी यादें,उभड़-खाबड़ रास्तों से गुजरना हमें याद दिलाता रहता है कि हम क्या थे?क्या हैं? किन संघर्षों से बने हुए हैं?और कितनों ने निःस्वार्थ भाव से हमें अपना समय,प्यार और दुलार दिया।मुझे ऐसा लगता है कि बीते कल में रहे लोगों को याद करना, हमें खुद से मिला देता है। कोई है ऐसा जो मेरे बचपन को एक बार फिर से लौटा सकता है।राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कृत्रिमता से ज्यादा मौलिकता और प्रकृति पर जोर देते थे।उनका कहना था कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। इसीलिए गाँधीजी गॉवों की दशा सुधारने के लिए योजनाओं के सृजन और क्रियान्वयन पर बल देते थे।गांधी के चिंतन के केंद्र बिंदु में गांव,गरीब और गाय थे, वे “सभी का साथ सभी का विकास” के हिमायती थे,समावेशी विकास के उन्नायक थे।
“जिसकी रज में लोट- लोटकर बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल सरक- सरककर खड़े हुए हैं।
प्रकाशमय बाल्यकाल में सब सुख पाए,
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाए”।

डॉ ओ पी चौधरी
संरक्षक, अवधी खबर;
समन्वयक,अवध परिषद उत्तर प्रदेश