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कोरोना,गरीबी और परंपराएं : डॉ ओ पी चौधरी

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कोरोना,गरीबी और परंपराएं : डॉ ओ पी चौधरी

संपादकीय
वर्तमान समय में केंद्र सरकार के ऑकड़ो के अनुसार भारत वर्ष में लगभग अस्सी करोड़ ऐसे लोग हैं जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। सरकार उनको अनेक सुविधाएं मुहैया करा रही है। कोविड -19 से उत्पन्न हुई महामारी के कारण जो आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ उससे गरीबों की संख्या में और इजाफा हुआ है। लोगों के रोजगार समाप्त हो गए,काम-धन्धा बन्द हो गया। लॉक डाउन के कारण लाखों लोग महानगरों से अपने पैतृक निवास की ओर चल दिये, बिना सोचे – समझे कि वहाँ पहुँचकर रोजी और रोटी का क्या प्रबंध होगा। ऐसी सभी घटनाओं का सबसे ज्यादा असर गरीब मजदूरों पर पड़ता है।सोचा जान है तो जहान है। उनके सामने रोजी- रोटी का गंभीर संकट उत्पन्न हो गया। बच्चों की पढाई-लिखाई बर्बाद हो गयी। यहां तक कि लड़कियों की शादियां रुक गयीं। इसी में प्राकृतिक आपदाओं – तूफान,बादल फट जाना,अतिवृष्ट,अनावृष्टि,बाढ के कारण करोडों लोगों का घरबार, पशु,फसलें बर्बाद हो जाती हैं। फलस्वरूप गरीबी और बढती जाती है। संसार में गरीबी को सबसे बड़ा पाप कहा गया है। गरीबी को सारी बुराइयों की जड़ माना जाता है। सरकारी स्तर पर पर जो भी इसके लिए किया जाता है वह बहुत ही नाकाफी होता है। सरकारी धन जो भी इन आपदाओं से पीड़ित लोगों के ऊपर खर्च किया जाता है उसका बहुत बड़ा हिस्सा बिचौलिया हजम कर जाते हैं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी जी ने कहा था कि सरकार एक रुपये भेजती है लेकिन लोगों तक केवल 15 पैसे ही पहुंचते हैं। वही या उससे बदतर स्थिति आज भी है। यह यथार्थ है,आदर्श और यथार्थ में बहुत अंतर है। कितने दुःख की बात है कि भ्रष्टाचार के कारण एक मनुष्य ने ही अपने ही जैसे दूसरे मनुष्य को आतंकित कर रखा है। भ्रष्ट्राचार और प्राकृतिक आपदाओं के कारण विकास का कार्य बहुत ज़्यादा प्रभावित होता है। कार्य की लागत बढ़ जाती है,समय भी अधिक लगता है।
गरीबी का एक मंजर मैंने दो दिन पूर्व देखा – अपने एक करीबी के यहां तेरही में कैमूर (बिहार) गया था। गरीबी क्या होती है अपनी ऑखों से बहुत ही नजदीक से देखा। सब कुछ देखकर मन बहुत ही द्रवित हो गया और अपने बचपन के दिनों की याद आ गई। वास्तव में मैं जो कहना चाहता हूं कि वह गरीबी जिसे मैंने देखा उसकी आज की पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती है। 16अगस्त, 2021को एक ब्रह्मभोज कार्यक्रम में जिस घटना को मैंने देखा वही इस कथ्य का मूल विषय है। दलित वर्ग के सैकड़ों बूढे,बच्चे,महिलाएं जिनके तन पर आधे-अधूरे मैले- कुचैले कपड़े थे। वे लोग कई घंटों से भोजन के इन्तजार में थाली-लोटा-छोटी बाल्टी लिए बैठे हुए थे। एक बच्ची तो मुंह से कटोरा ही चाट रही थी। यहां परंपरा यह है कि जब तक सब लोग खाना खा नहीं लेते हैं तब तक उनको भोजन नहीं दिया जा सकता है। इस तरह की परंपराओं को अब हमें छोड़ना चाहिए। दरअसल मृत्युभोज ही अपने आप में एक बहुत बड़ी कुरीति है,इसका परित्याग होना चाहिये। लेकिन किसी परंपरा का अवसान इतनी आसानी से नही हो सकता है। हम लोगों की तरफ तेरही के दूसरे दिन सुबह कुछ जरूरतमंद लोग आज भी बचा हुआ खाना लेने के लिए आते हैं।लेकिन शाम को इतनी भीड़ ऐसे जरूरतमंद लोगों की हमने पहली बार देखी,वैसे हम लोगों की तरफ भी हमारे बचपन के समय कंका-मंका आते थे,लेकिन अब पिछले कई दशकों से ऐसा दृश्य हमने नहीं देखा है,जो आज यहां भभुआ में देखने को मिला। यहाँ विषयांतर होना चाहता हूँ,जिस पतली सड़क से हम लोग छोटका अमाव गॉव तक गए उसके दोनों ओर धान की एक रंग की लहलहाती फसल भी इतने बड़े क्षेत्र में जहां तक निगाह गयी,हम पहली बार ही देखे थे,दूसरी किसी फसल का नामो निशान नहीं।
यह मात्र परंपराएं ही नहीं हैं इनका सरोकार गरीबी से है,भूख से है। इंदिरा गांधी जी ने 80 के दशक में गरीबी हटाओ का नारा दिया था,लेकिन अभी भी बहुत कुछ निस्वार्थ भाव से बिना किसी भेदभाव के करने की जरूरत है,ताकि हर भारतवासी को दो जून का भोजन सम्मानजनक तरीक़े से मिल सके। इसके लिए राजनेताओं की दृढ इच्छा शक्ति होनी चाहिए तथा केवल वोट की राजनीति करने से परे जाकर इस दिशा में एकजुट होकर कार्य करने की जरूरत है। सब कुछ राजनीतिक चश्मे से देखने की जरूरत नहीं है। भारत के निर्माण में सभी का योगदान है तो सभी को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार भी होना चाहिए।

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लेखक…..

डॉ ओ पी चौधरी
संरक्षक, अवधी खबर;समन्वयक,अवध परिषद उत्तर प्रदेश; एसोसिएट प्रोफेसर, मनोविज्ञान विभाग,श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी।

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