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चौथे वर्ण के लोगों के प्रमाणपत्रों में शूद्र के स्थान पर अलग – अलग जातियां क्यों अंकित किया जाता है..?

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चौथे वर्ण के लोगों के प्रमाणपत्रों में शूद्र के स्थान पर अलग – अलग जातियां क्यों अंकित किया जाता है..?

अवधी खबर। वेदों, गीता, रामायण, अन्य धार्मिक ग्रंथों या पुराणों का हवाला देकर ये बताया जाता है कि ईश्वर ने या सृष्टि कर्ता ने समाज को चार वर्णों (जातियों) में कर्म के अनुसार स्वयं बांटा है, क्रमशः ये ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र हैं। समाज में ये व्यवस्था आदि काल से अद्द्यतन तक चली आ रही है। लेकिन, ये बात मेरी समझ के परे है कि ब्राह्मणों में दुबे, द्विवेदी, तिवारी, त्रिपाठी, चौबे, चतुर्वेदी, उपाध्याय, पाण्डे, शुक्ल, दीक्षित आदि अनेक उप जातियां हैं। जब इनके प्रमाणपत्र में जाति लिखना होता है तो केवल ब्राम्हण लिखा जाता है। इसी तरह क्षत्रियों में, सूर्यवंशी, रघुवंशी, राजकुमार, कछवाहा, कुशवाहा, कौशिक, विसेन आदि अनेक उप जातियाँ हैं। लेकिन, इन सभी के प्रमाणपत्रों में जाति के खाने में केवल क्षत्रिय ही लिखा जाता है। ऐसे ही वैश्यों में भी अनेक उप जातियां अग्रवाल, जायसवाल, अग्रहरि, कलवार, कुदेशिया, मधेशिया आदि अनेक जातियां हैं लेकिन, इनके भी प्रमाणपत्रों में केवल वैश्य ही लिखा जाता है। इन लोगों की उप जातियां प्रमाणपत्रों में नहीं लिखी जाती।
परन्तु, शूद्रों के प्रमाण पत्रों में उनकी अलग अलग उप जातियाँ ही लिखी जाती हैं यथा कुर्मी, काछी, अहीर, यादव, लोहार, कहार, तेली, लोध आदि लेकिन, शूद्र नहीं लिखा जाता है। ऐसा क्यों..? सोंचिये, जब शास्त्रों, वेदों, पुराणों या आदि धार्मिक ग्रंथों में व्यवस्था दिया गया है कि ईश्वर द्वारा समाज को चार वर्णों में विभक्त किया गया है, फिर अन्य तीन वर्णों की तरह शूद्र वर्ण के लोगों के प्रमाण पत्रों में मूल जाति शूद्र का उल्लेख क्यों नहीं किया जाता ? उनकी उप जातियों का उल्लेख क्यों और किस उद्देश्य से किया जाता है ?
इतना ही नहीं शास्त्रों के आधार पर यह भी बताया जाता है कि ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य अपने गोत्र में शादी व्याह नहीं करेंगे बल्कि वे अपनी शादी ब्याह अपने गोत्र से बाहर ही करेंगे। क्यों…? जिससे कि इनका सम्बन्ध व जनसम्पर्क दूर दूर तक ज्यादा लोगों से हो सके व अनुवांशिक दोषों व बीमारियों से छुटकारा पा सकें। जबकि, उन्हीं शास्त्रों को आधार बनाकर शूद्रों के लिए सगोत्रीय (अपने ही गोत्र में) शादी विवाह करना आवश्यक बताया गया! ऐसा क्यों….? जहाँ तक मैं समझता हूँ कि शूद्रों के सम्बन्धों के दायरे को सीमित करने के लिए, इनमें आपसी सामंजस्य न स्थापित हो सके और इनके अंदर अनुवांशिक दोष और बीमारियां निरन्तर बनी रहें या उत्तरोत्तर विकास करती रहें, के कारण ही शूद्रों के लिए सगोत्रीय विवाह आवश्यक बताया गया।

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इन्हीं शास्त्रों के आधार पर एक और प्रश्न उठता है, जब सप्तऋषियों के नाम पर सात गोत्र बनाये गए या बने तो फिर ऐसा क्या और क्यों हो गया कि ब्राह्मण आदि अपने गोत्र से इतर शादी करेंगे और शूद्र अपने ही गोत्र में शादी करेगा…? हर जातियों के गोत्र इन्हीं सातों ऋषियों के नाम पे हैं, फिर आज का यादव अत्रि गोत्री या कुर्मी काश्यप गोत्री शूद्र कैसे और क्यों हो गया.. ब्राह्मण या क्षत्रिय क्यों नहीं हुआ…?
शूद्रों के बिखराव की समस्या के मूल में इनका हजारों जातियों में विभक्त होना हो है। चूँकि, देश की आबादी में शूद्रों की सहभागिता लगभग 85% है। ऐसे में यदि इनकी पहचान एक जाति या एक वर्ण या एक वर्ग के रूप में दी या की गयी होती तो, शासन, प्रशासन में इनका वर्चस्व रहता। शासन सत्ता से दूर रखने के लिए पहले इस वर्ग को दो बड़े भागों स्पृश्य व अस्पृश्य (पिछड़ा व दलित) में विभक्त किया गया और कालांतर में इन्हें हजारों उप जातियों में विभक्त किया गया। परिणाम स्वरूप आज 85% लोग आपस में लड़ रहे हैं और बाकी 15% लोग सत्ता सुख भोग रहे हैं।
85% जन संख्या ( शूद्रों ) को एक साथ आने में सबसे बड़ी बाधा उनका हजारों उप जातियों में विभक्त होना है। इसलिए, आज शूद्रों की एकता के लिए, उनको संगठित करने के लिए यह जरूरी है कि इनके प्रमाणपत्रों में उप जाति की जगह, अन्य वर्णों की ही भांति मूल वर्ण शूद्र लिखे जाने के लिए आवाज बुलंद करनी चाहिए।

सादर
शत्रुघ्न चौधरी
मैनुद्दीनपुर, अम्बेडकर नगर

 

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