प्रेरक प्रसंग “स्वाभिमान”
1 min readप्रेरक प्रसंग “स्वाभिमान”
गिरिजा सुधा……
लखनऊ। कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति का एक पत्र पाकर पंडित मदन मोहन मालवीय असमंजस में पड़ गए वे बुदबुदाए अजीब प्रस्ताव रखा है या तो उन्होंने। क्या कहूं क्या लिखूं ? पास बैठे एक सज्जन ने पूछा ऐसी क्या अजीब बात लिखी है पंडित जी उन्होंने। वे मुस्कुरा कर बोले कोलकाता विश्वविद्यालय के उप कुलपति महोदय मेरी सनातन उपाधि छीन कर एक नई उपाधि देना चाहते हैं वे लिखते हैं यह कहकर वे पत्र पढ़ने लगे। उस पत्र में लिखा था कोलकाता यूनिवर्सिटी आपको डॉक्टरेट की सम्मानित उपाधि से अलंकृत करके अपने आप को गौरवान्वित करना चाहती है हम भी गौरवान्वित हो सकेंगे। आप अपनी बेशकीमती स्वीकृति से शीघ्र ही सूचित करने की कृपा कीजिए प्रस्ताव तो उचित ही है। आप ना मत कर दीजिएगा मालवीय जी महाराज या तो हम वाराणसी वासियों के लिए विशेष गर्भ एवं गौरव की बात होगी। तभी एक अन्य सज्जन ने हाथ जोड़कर उनसे कहा। अरे बहुत ही भोले हो भइये तुम तो। वाराणसी के गौरव में वृद्धि नहीं होगी। यह तो वाराणसी के पांडित्य को जलील करने का प्रस्ताव है। बनारस के पंडितों को अपमानित करने वाली तजवीज है यह। बहुत ही व्यथित मन से मालवीय जी बोले।
अगले ही क्षण उन्हाेंने उस पत्र का उत्तर लिखा- मान्य महोदय ! आप के प्रस्ताव के लिए धन्यवाद। मेरे उत्तर को अपने प्रस्ताव का अनादर मत मानिए गा। मेरा पक्ष सुनकर आप उस पर पुनर्विचार ही कीजिएगा। मुझको आपका यह उपाधि वितरण प्रस्ताव अर्थहीन लग रहा है। मैं जन्म और कर्म दोनों से ही ब्राह्मण हूं। किसी भी ब्राह्मण धर्म की मर्यादाओं के अनुरूप जीवन बिताता है। पंडित से बढ़कर अन्य कोई भी उपाधि नहीं हो सकती। मैं डॉक्टर मदन मोहन मालवीय कहलाने की अपेक्षा पंडित मदन मोहन मालवीय कहलवाना ना अधिक पसंद करूंगा। आशा है आप इस ब्राह्मण के मन की भावना का आदर करते हुए इसे डॉक्टर बनाने का विचार त्याग कर पंडित ही बना रहने देंगे। वृद्धावस्था में भी मालवीय जी तत्कालीन वाइसराय की कौंसिल के वरिष्ठ काउंसलर थे। उनकी गहन और तथ्य पूर्ण आलोचनाओं के बावजूद वाइसराय उनकी मेघा सौजन्य सहज पांडित्य आदि के कायल थे। एक बार एक खास भेंट के कार्यक्रम के दौरान वॉइस राय कहा पंडित मालवीय हिज मेंजेस्टी की सरकार आप को सर की उपाधि से अलंकृत करना चाहती है। आप इस उपाधि को स्वीकार करके इस उपाधि का गौरव बढ़ाने में हमारी मदद करें। मालवीय जी ने तुरंत मुस्कुरा कर उत्तर दिया महामहिम वाइसराय जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद कि आप मुझे इस योग्य मानते हैं किंतु मैं वंश परंपरा से प्राप्त अपनी सनातन उपाधि नहीं देखना चाहता। एक ब्राह्मण के लिए पंडित की उपाधि ही सर्वोपरि उपाधि है। यह मुझे ईश्वर ने प्रदान की है। मैं इसे त्याग कर उसके बंदे की दी गई उपाधि को क्यों कर स्वीकार करूं ? वाइसराय उनके तर्क से खुश होकर बोले- आपका निर्णय सुनकर हमें आपको पांडित्य पर जो गर्व था वह दुगुना हो गया। आप वाकई सच्चे पंडित हैं जो उसके गौरव गरिमा की रक्षा के लिए कोई भी प्रलोभन त्याग सकते हैं। एक बार काशी के पंडितों की एक सभा ने मालवीय जी महाराज का नागरिक अभिनंदन करके उन्हें उस समारोह के दौरान ही पंडित राज की उपाधि प्रदान किए जाने का प्रस्ताव किया। यह सुनकर सभा के कार्यकर्ताओं के सुझाव का विरोध करते हुए वो बोले अरे पंडित पांडित्य का मखौल क्यों बना रहे हो पंडित की उपाधि तो स्वता ही विशेषणतीत है। इसलिए आप मुझको पंडित ही बना रहने दीजिए। फिर वे हंसकर बोले जानते हो पंडित महा पंडित बन जाता है तो उसका एक पर्यायवाची वैशाख नंदन गधा बन कर मुस्कुराता है व्याकरण आचार्यों के पांडित्य पर। और पंडित जी के विनोद में बात आई गई हो गई। वे ना तो डॉ बने, ना सर हुए ना ही पंडित राज इस सब से दूर स्वाभिमान के साथ जीवन पर पांडित्य का गौरव बढ़ाते रहें।