गांव गिरांव:यादों के झरोखे से-गांव के बियाह
1 min read
संपादकीय। बीता हुआ कल वापस नहीं आता दुबारा,लेकिन स्मृतियां मन के तारों को झंकृत करती रहती हैं।स्मृतियां सुखद ही होती हैं,जैसी भी रही हों।इस चकाचौंध की दुनियां से कभी- कभार दिल सकून के पल तलाशता है,अपने भूले बिसरों को याद करता है तो मन बचपन की ओर लौटता है,तो चलिए आपको सैर कराते हैं अपने गांव मैनुद्दीनपुर, जलालपुर, अंबेडकरनगर की,और 40 से 50 वर्ष पूर्व के बियाह के रस्मों-रिवाज की तरफ,सामाजिक ताने-बाने की तरफ,सहयोग और सदभावना की तरफ।पहले गाँव मे न टेंट हाऊस थे और न कैटरिंग, न डीजे,थी तो बस सामाजिकता,सदभावना और परस्पर प्रेम और सहयोग।गांव में जब कोई शादी ब्याह होते तो घर – घर से चारपाई आ जाती थी, बिस्तर आ जाते थे।गांव तथा पड़ोस के गांव से हंडा- लोटा, परात,कड़ाही,कलछुल अन्य बर्तन इकट्ठा हो जाया करते थे।गाँव की ही महिलाएं एकत्र हो कर खाना बना देती थीं।कुछ लड़कियां ही मिलकर दुलहिन तैयार कर देती थीं और हर रसम का गीत- गारी वगैरह भी खुद ही गा लिया करती थी सुर में,बिना किसी रिहर्सल के।
तब अनिल-डीजे,सुनील डीजे जैसी चीज नहीं होती थी, बैंड बाजा भी ऐसे नहीं थे और न ही कोई आरकेस्ट्रा वाले फूहड़ गाने। गांव के सभी वरिष्ठ और सहयोगी प्रवृत्ति के लोग पूरे दिन काम करने के लिए इकट्ठे रहते थे। हंसी-ठिठोली चलती रहती और समारोह का कामकाज भी। शादी- ब्याह मे गांव के लोग बारातियों के खाने से पहले खाना नहीं खाते थे क्योंकि यह घरातियों की इज्ज़त का सवाल होता था। गांव की महिलाएं गीत गाती जाती और अपना काम करती रहती। सच कहूं तो उस समय गांव मे सामाजिकता के साथ समरसता भी थी।बाराती पैदल,साइकिल,बैलगाड़ी से आते।बाद में ट्रैक्टर ट्राली और मोटर साइकिल भी आने लगी।मुझे याद है नरायनपुर राम अशीष चाचा की शादी में बनकेगांव जयन्त्री बाबू के यहां बारात में 9 ट्रैक्टर ट्रॉली गए थे।
खाना परसने के लिए गाँव के लड़कों की टीम समय पर इज्जत सम्हाल लेती थी।हम लोगों ने बलुआ के जियावन भैया से सीखा और पुरवा पर बृजेंद्र चाचा के नेतृत्व में कई वर्षों तक शादी- विवाह में खाना परोसने का कार्य बड़े चाव से करते थे।शाम को बारात आने पर कोसिया (मिट्टी का बर्तन)में मिठाई और कुल्हड़ में पानी दिया जाता था।जिस कुएं से पानी पीने के लिए निकाला जाता था,उसमें केवड़ा डाल दिया जाता था।एक बार तो हम लोगों की पूरी टीम बुद्धिताल गई थी,इसी काम के लिए(बारात संभालने के लिए)। कोई बड़े घर की शादी होती तो टेप बजा देते जिसमे एक कॉमन गाना बजता था-मैं सेहरा बांधके आऊंगा मेरा वादा है और दूल्हे राजा भी उस दिन खुद को किसी युवराज से कम न समझते। दूल्हे के आसपास नाऊ हमेशा रहता, समय-समय पर बाल झारते रहता था ताकि दुलहा सुन्नर लगे,तौलिया दूल्हे के कंधे से लटकती रहती थी।हम लोगों के नाऊ चन्दर बाबा थे,डांट भी देते थे,अभी भी वही हैं,बड़ी बड़ी मूंछ रखे,सारे रीति-रिवाज और रशमों के जानकर, वैसा जानकार नाऊ मैंने आज तक नहीं देखा। गोधूलि बेला में द्वारचार होता,हाथी की पूजा होती। ठंडई, मिरचनी का दौर चलता,महफिल सजती नौटंकी के एक दो अच्छे लौंडे दूल्हे के सिर पर सेहरा सुहाना लगे गाते और नृत्य करके बरातियों से नेग चार लेते।नीचे टाट- पट्टी बिछती थी उसपर पलथी मारकर बैठकर भोजन करते थे पत्तल और पुरवा। फिर शुरू होती पण्डित जी लोगों की महाभारत जो रातभर चलती। फिर कोहबर होता, ये वो रसम है जिसमें दुलहा दुलहिन को अकेले में दो मिनट बतियाने के लिए दिया जाता था,लेकिन इत्ते कम समय में कोई क्या खाक बात कर पाता। सबेरे खिचड़ी में जमके गारी गाई जाती और यही वो रसम है जिसमे दूल्हे राजा जेम्स बांड बन जाते थे कि ना, हम नही खाएंगे खिचड़ी। फिर उनको मनाने कन्यापक्ष के सब मालिक टाइप के लोग आते। लड़की की मां कुछ सामान और नकदी लेकर दूल्हे के पांव पड़ती थी।
अक्सर दुलहा की सेटिंग अपने दादा, चाचा,जीजा,फूफा से पहले ही सेटिंग रहती थी और उसी अनुसार 10 मिनिट से आधा घंटा रिसियाने का क्रम चलता।फिर उन्हीं के इशारे से खिचड़ी खाने का फर्ज पूरा होता था।मेरे विवाह में यह काम मेरे जीजा जी के जिम्मे था।उसी से दूल्हे के छोटे भाई सहबाला की भी भौकाल टाइट रहती लगे हाथ वो भी कुछ न कुछ और लहा लेता…फिर एक जय घोष के साथ मिठाई का टुकड़ा दूल्हे के होठों तक पहुंच जाता,जय श्रीराम का जयघोष होता और एक विजयी मुस्कान के साथ वर और वधू पक्ष इसका आनंद लेते,उसके बाद ही बरातियों को जलपान कराया जाता। उसके बाद दूल्हे का साक्षात्कार वधू पक्ष की महिलाओं से करवाया जाता और उस दौरान उसे विभिन्न उपहार प्राप्त होते जो नगद और श्रृंगार की वस्तुओं के रूप में होते.. इस प्रकिया में कुछ अनुभवी महिलाओं द्वारा काजल और पाउडर लगे दूल्हे का कौशल परिक्षण भी किया जाता और उसकी समीक्षा परिचर्चा विवाह बाद आहूत होती थी।
फिर गिने चुने बुजुर्गों द्वारा माड़ौ (विवाह के कर्मकांड हेतु निर्मित अस्थायी छप्पर) हिलाने की प्रक्रिया होती वहां हम लोगों के बचपने का सबसे महत्वपूर्ण आनंद उसमें लगे लकड़ी के सुग्गों ( तोता) को उखाड़ कर प्राप्त होता था और विदाई के समय नगद नारायण कड़ी कड़ी 10/20 रूपये की नोट जो कहीं 50 रूपये तक होती थी। वो स्वर्गिक अनुभूति होती कि कह नहीं सकते हालांकि विवाह में प्राप्त नगद नारायण घर पहुंचते ही 2/5 रूपये से बदल दिया जाता था।
आज की पीढ़ी उस वास्तविक आनंद से वंचित हो चुकी है जो आनंद विवाह का हम लोगों ने प्राप्त किया है,जो सहभागिता ,सहयोग,सामंजस्य हम लोगों ने देखा है,अनुभूति की है।
लोग बदलते जा रहे हैं, परंपरा भी बदलते चली जा रही है, आगे चलकर यह सब देखने को मिलेगा की नही अब इसे विधाता जाने लेकिन जो मजा,उत्साह,आनंद,परस्पर सहयोग,प्रेम और विश्वास उस समय मे था, वह अब धीरे धीरे बिलुप्त हो रहा है।हम केवल फर्ज अदायगी ही कर रहे हैं।
डा ओम प्रकाश चौधरी
संरक्षक, अवधी खबर
समन्वयक,अवध परिषद उत्तर प्रदेश।