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मुहर्रम पर विशेष : भैय्या तुम्हें घर जाके कहां पाएगी जैनब…..

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अली अस्करी नक़वी, अंबेडकरनगर। मुहर्रम यूं तो शोक के रूप में जाना जाता है, लेकिन सच्चाई यह है कि ग़म का यह महीना राष्ट्रीय एकता, अखंडता और बंधुत्व का संदेश देता है। इसका प्रमाण है कर्बला के महान बलिदानी हुसैन इब्ने अली की शान में अनेक हिंदू शायरों द्वारा उर्दू भाषा में लिखा गया मर्सिया। यहां प्रस्तुत है लखनऊ के एक नामचीन कवि द्वारा रचित मर्सिए की पंक्ति।
लखनऊ के प्रसिद्ध कवि स्व० छन्नू लाल ‘दिलगीर’ ने यौम-ए-आशूरा यानी दसवीं मुहर्रम का मंज़रकशी करते हुए सत्तर के दशक में एक कलाम लिखा था, जिसका शीर्षक है ‘घबराएगी जैनब, भैय्या तुम्हें घर जाके कहां पाएगी जैनब’। नगर के मुहल्ला लोरपुर-ताजन से संबंध रखने वाले दिवंगत सैयद नासिर जो अपने बुज़ुर्गों के साथ कराची-पाकिस्तान जाकर बस गए थे, ने वर्ष 1976 में इस कलाम को पहली बार नौहे के रूप में अपनी दर्दभरी आवाज़ में पढ़ा तो यह नौहा दुनिया भर में मशहूर हो गया। छन्नू लाल दिलगीर द्वारा रचित उक्त नौहे की लोकप्रियता का आलम यह है कि हिंदुस्तान सहित संसार के उन सभी भू-भाग पर जहां शिया समुदाय के लोग रहते हैं सामान्य दिनों के अतिरिक्त विशेष रूप से 10 मुहर्रम को ताज़िया दफ़्न होने के उपरांत आयोजित होने वाली परंपरागत शाम-ए-ग़रीबा की मजलिसों में अनिवार्य रूप से पढ़ा जाता है। कहना ग़लत न होगा कि इस प्रकार छन्नू लाल दिलगीर अपनी रचना की बदौलत आज भी विश्व भर में फैले इमाम हुसैन के अनुयायियों के दिलों में रचे बसे हैं।
मर्सिया निगारी में लखनऊ के उर्दू शायर कुंवर सेन मुस्तर, धनपत राय मुहिब, लालता प्रसाद शाद, विशेश्वर प्रसाद मुनव्वर, कृष्ण बिहारी नूर, मन्नीलाल जवां, राजाराम प्रसाद बशीर, आजुस मातवी, निर्मल दर्शन जैसे पचास से भी अधिक शायरों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। पेशे से पत्रकार और कर्बला की त्रासदी पर गहन अध्ययन करने वाले लखनऊ निवासी हिमांशु बाजपेई से जब कर्बला के बारे में पूछा गया तो उन्होंने दो पंक्ति में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा- दरे हुसैन पर मिलते हैं हर ख़याल के लोग, ये इत्तेहाद का मरकज़ है आदमी के लिए।

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